याद गली वो कौन था!
1925
में जन्मे राज खोसला ने करियर की शुरुआत गुरु दत्त के मार्गदर्शन में की थी। प्रशिक्षित शास्त्रीय गायक राज खोसला का फिल्म जगत में प्रवेशसहायक निर्देशक के रूप में हुआ। उनके शुरुआती कार्यों में गुरु दत्त का प्रभाव स्पष्ट है, लेकिन जल्द ही राज खोसला ने अपनी शैली विकसित की, जोतकनीकी कुशलता, मनोवैज्ञानिक गहराई, और भावनात्मक प्रभाव के साथ विशिष्ट थी!
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राज खोसला को अपने थ्रिलर्स में ऐसा दृश्यगत तनाव उत्पन्न करने में महारत हासिल थी, जो हालीवुड के नाइर और भारतीय भावना दोनों से प्रेरित थी।जरा याद करें कि किस तरह ‘वो कौन थी?’ की डरावनी ध्वनि और भुतहा महिला चेहरा सिनेमा के सस्पेंस जोनर में एक मानक बन गया। प्रकाश औरछाया के खेल, पात्रों की धीमे-धीमे खुलती पहचान और संगीत के प्रभावशाली उपयोग ने उनकी फिल्मों को सिनेमा की स्थायी विरासत में बदल दिया!
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तीन
दशकों तक विस्तृत राज खोसला के करियर के दौरान सिनेमा की रुचि और राजनीति में बड़ा बदलाव आया। इस कालखंड के प्रारंभ में नेहरू युग कीआशावादिता दिखती है तो उत्तरार्ध में स्वप्न भंग और विद्रोही नायक का उदय। राज खोसला इन परिवर्तनों के साथ समग्रता से जुड़े रहे। बीसवींशताब्दी के आठवें दशक में फार्मूला एक्शन फिल्मों का उदय राज खोसला के सिनेमा की लोकप्रियता में कमी का कारण बना।
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याद गली
वो कौन था!
फिल्मी दुनिया में वो अपने समकालीन निर्माता-निर्देशकों की तरह कलात्मक नहीं माने गए, फिर राज खोसला इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं भारतीय सिनेमाके लिए। राज खोसला के जन्म शताब्दी वर्ष पर संदीप भूतोड़िया का आलेख...
फिल्म निर्माता-निर्देशक राज खोसला का शताब्दी वर्ष उनकी सिनेमा विरासत के पुनरीक्षण और मूल्यांकन का उपयुक्त अवसर है। हिंदी जगत केसबसे प्रभावशाली फिल्मकारों में से एक राज खोसला ने न केवल बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोकप्रिय हिंदी फिल्मों का विशिष्ट कथानक औरशैलीगत संदर्भ निर्मित किया, बल्कि महिलाओं को केंद्र में रखने वाली कहानियों, रोमांचक अपराधकथाओं और संगीतमय फिल्मों का वह वातावरणरचा, जो आज भी फिल्मकारों को प्रभावित करता है।
राज खोसला की सबसे बड़ी खासियत थी विभिन्न शैलियों में बिना टाइप्ड हुए काम कर सकने की क्षमता। वह अपराध-रोमांच से भरी ‘सीआईडी’, ‘काला पानी’ अथवा ‘वो कौन थी?’ हो या ‘मैं तुलसी तेरे आंगन’ की सरीखा कोर्टरूम ड्रामा; संगीतात्मक प्रेमकहानी ‘दो बदन’ हो या फिर क्रूर बदले कीकहानी ‘कच्चे धागे’, उनकी हर फिल्म में शैलीगत सटीकता और विषय की गहराई का समावेश था।
राज खोसला की फिल्मों का एक उल्लेखनीय पहलू था नायिकाओं का सशक्त चित्रण। उस समय जब हिंदी फिल्में मुख्य रूप से नायक केंद्रित थीं, राज खोसला ने अपनी नायिकाओं को न केवल अधिक स्थान बल्कि जटिल और भावनात्मक उतार-चढ़ाव भी दिए। अपनी महिला-केंद्रित त्रयी, ‘वोकौन थी?’, ‘मेरा साया’ और ‘अनीता’ ( इन सभी में अभिनेत्री के रूप में साधना थीं) में उन्होंने महिला पात्रों को रहस्य, प्रेम और मनोवैज्ञानिक आघात केबीच फंसे हुए दर्शाया।
इसी प्रकार ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में उन्होंने नैतिकता और सामाजिकता के द्वंद्व को उजागर किया, जिसमें नूतन और आशा पारेख की प्रेरकप्रस्तुतियां थीं। उनकी फिल्में महिलाओं को केवल सजावट के रूप में प्रस्तुत नहीं करती थीं, बल्कि उनकी उपस्थिति कहानी को आगे बढ़ने और इसकेसमाधान का अभिन्न अंग थीं। यहां तक कि संगीतमय रोमांटिक फिल्मों में भी नायिका का भावनात्मक विकास अक्सर फिल्म का मुख्य हिस्सा होताथा। उन्होंने साधना, नूतन, आशा पारेख, वहीदा रहमान और हेमा मालिनी के साथ शानदार फिल्में दीं। जिनके माध्यम से राज खोसला ने प्रेम, बलिदान, मानसिक अवसाद और सामाजिक उपेक्षा सरीखे विषयों को समानुभूति और दृश्यकला के साथ उठाया।
वे अपने समकालीन निर्माता-निर्देशकों गुरु दत्त, बिमल राय और ऋषिकेश मुखर्जी की तरह कलात्मक भले ही न माने गए हों मगर राज खोसला कीसिनेमाई भाषा उनकी तीव्र दृष्टि, सजीवता और माहौल बनाने में निपुणता पर निर्भर थी। ‘वो कौन थी?’ में वह भयावह कुहासा, ‘दो बदन’ का प्रेमाकुलविषाद, या ‘कच्चे धागे’ की धूल भरी धरती, वो कहानी की भावनात्मक बनावट के अनुरूप सिनेमाई दुनिया का सृजन करना जानते थे। वे प्रतीकात्मकप्रतिमाओं, विपरीत प्रकाश व्यवस्था और परावर्तक सतहों (जैसे दर्पण और जल) का प्रयोग करते थे, जो द्वैतता, आंतरिक संघर्ष या अनसुलझे टकरावका संकेत देते थे। उनके दृश्य केवल सुंदर ही नहीं थे, बल्कि अत्यंत अर्थपूर्ण थे। मनोवैज्ञानिक उपपाठ को दृश्य भाषा में बदलने की उनकी क्षमता उन्हेंऐसे फिल्मकारों की कतार में रखती है, जो सिनेमा को केवल कथा कहने का माध्यम नहीं, बल्कि एक समर्पित कला मानते थे।
राज खोसला की विरासत की चर्चा उनके अद्भुत संगीत प्रयोग के बिना अधूरी है। ओपी नैयर, मदन मोहन और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे संगीतकारोंके साथ उनका दीर्घकालिक सहयोग हिंदी सिनेमा की कुछ सबसे प्रसिद्ध सांगीतिक स्मृतियों को रचता है। शास्त्रीय गायक होने की उनकी पृष्ठभूमि औरइससे प्राप्त अनुभव उन्हें ऐसे गीतों के निष्पादन में सहायक रहा, जो मात्र गुनगुनाने के लिए नहीं, बल्कि कथानक को विस्तार देने के लिए थे। ‘लग जागले’, ‘ नैना बरसे रिमझिम’, ‘तू जहां जहां चलेगा’, ‘है अपना दिल तो आवारा’, ‘ बिंदिया चमकेगी’ जैसे गीत न केवल संगीत के अनमोल रतन हैं, बल्कि फिल्म के मूड को बढ़ाते हैं, सस्पेंस को तेज़ करते हैं या पात्रों की भावनात्मक अवस्थाओं को रेखांकित करते हैं।
राज खोसला की छाप हिंदी सिनेमा पर अपनी फिल्मोग्राफी से कहीं अधिक है। उन्होंने उस शिल्प वैशिष्ट्य को रचा, जहां कला और व्यवसाय दोनों कासंतुलन हो सकता है। उनके थ्रिलर ने मुख्यधारा में ‘साइको सस्पेंस’ फिल्मों के द्वार खोले। यश चोपड़ा, राज कपूर और बाद में रमेश सिप्पी औरसुभाष घई जैसे निर्देशकों ने उनकी कथा शैली से तत्वों को उधार लिया, चाहे वह रहस्य हो, मेलोड्रामा या संगीत!
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