जब दीप जले आना
निर्देशक-पटकथा लेखक बासु चटर्जी की फिल्में हल्की-फुल्की कहानियों, सामाजिक मूल्यों और पारिवारिक संबंधों पर केंद्रित रहती थीं। रजत पट पर स्वर्ण युग के साक्षी बासु दा (पुण्यतिथि चार जून) पर संदीप भूतोड़िया का आलेख…...
यह बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध था, हिंदी सिनेमा को कुछ नए की तलाश थी। बड़े पर्दे पर एकरूपता से कैमरा भी उकता रहा था। कहानी से लेकर गीतों तक में ताजगी नदारद थी। ‘बंदिनी’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’, ‘अनुपमा’ और ‘तीसरी कसम’ जैसी कुछ गिनी-चुनी फिल्में थीं जो सिनेमा की छवि को सकारात्मक और कुछ बेहतर की उम्मीद दे रही थीं, अन्यथा अब सिनेमा की पहचान बस नाच-गाना भर ही रह गई थी। अपवाद तो गिनती के ही होते हैं, लेकिन नया सिनेमा गढ़ने की जिम्मेदारी उठाई फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट आफ इंडिया (एफटीआइआइ) ने। एफटीआइआइ अभिनय जगत की बारीकियां सिखाने की पाठशाला था और सिनेमा को सशक्त बनाने का गुरुकुल। वर्ष 1962 में यहां कोयले से हीरा बनकर निकले पहले बैच ने सिनेमा में बदलाव का पहिया घुमाना शुरू कर दिया। वर्ष 1969 हिंदी सिनेमा के इतिहास का स्वर्ण काल बन गया, जब एक ही वर्ष में आई तीन बड़ी फिल्मों ने नया सूरज चमकाया। मृणाल सेन की ‘भुवन सोम’, मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ और बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ ने सिनेजगत को नई भाषा की उस ताजगी से भर दिया, जिसकी कमी खल रही थी। इन तीन शिराओं का केंद्र थे के.के. महाजन, जिन्होंने 1966 में एफटीआइआइ से पढ़ाई पूरी की थी, और इन तीनों ही फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी की थी। बाद में बासु चटर्जी के साथ उनकी जोड़ी खूब हिट रही। कालांतर में ये तीनों निर्देशक अलग-अलग राहों में बढ़ गए। मृणाल सेन ने बांग्ला सिनेमा में आगे बढ़ना चुना तो मणि कौल ने कामर्शियल सिनेमा की राह छोड़ अपनी तरह की फिल्मों के लिए बागी रवैया अपनाया। अंततः यह बासु चटर्जी थे, जिनके पास रचनात्मकता और गंभीरता दोनों को मिलाकर कुछ खास रेसिपी बनाने का सीक्रेट मसाला मौजूद था। वे हृषिकेश मुखर्जी और गुलजार की मेनस्ट्रीम फिल्मों से एक कदम आगे की फिल्में ला रहे थे तो वहीं श्याम बेनेगल द्वारा प्रवर्तित कला सिनेमा में भी योगदान कर रहे थे। उस दौर में जैसा सिनेमा छाया हुआ था, उस लहर के एकदम विपरीत जाकर बासु चटर्जी ने अपने तरीके की फिल्मों से डंका बजा दिया। यह वह दौर था जब ‘यादों की बारात’, ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘अमर अकबर एंथोनी’ जैसी बड़ी ब्लाकबस्टर फिल्में चर्चा में थीं। यश चोपड़ा, रमेश सिप्पी, नासिर हुसैन और शक्ति सामंत जैसे बड़े खिलाड़ी सिनेमा को नए आयाम दे रहे थे। अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, ऋषि कपूर और राजेश खन्ना लोगों के रोल माडल थे और जीनत अमान, हेमा मालिनी लाखों दिलों की धड़कन। तब सुरुचिपूर्ण सिनेमा सामान्य फिल्मकारों की सोच से भी परे था। बासु चटर्जी हिंदी सिनेमा में विकल्प लेकर आए। अपनी पहली फिल्म ‘सारा आकाश’ से उन्होंने फिल्म निर्माण को अपने नजरिए से दिखाया। एक थाल में सब कुछ परोसने के बजाय बासु चटर्जी ने कामर्शियल और समानांतर सिनेमा के बीच का रास्ता अपनाया और कम में ज्यादा की संतुष्टि देकर दर्शकों का दिल जीत लिया। 1974 में आई ‘रजनीगंधा’ में बासु चटर्जी की क्रांति की खुशबू थी। अब तक आ रही अन्य फिल्मों की तरह इसमें कलाकार न तो बागों में नाच-गा रहे थे, न कोई बदले की भावना थी और न ही चमक-दमक वाले कपड़े, मेकअप से सजे हुए बड़े-बड़े कलाकार थे। बासु दा की यह फिल्म मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित थी। अपने जैसे ही दिखने वाले किरदारों से सजी इस फिल्म की सादगी दर्शकों के दिलों में घर कर गई और अमोल पालेकर-विद्या सिन्हा उस घर के प्यारे सदस्य बन गए। दरअसल, सिनेमा का यह पहलू बासु चटर्जी वर्ष 1971 में ‘पिया का घर’ में दिखा ही चुके थे, जहां अपने आशियाने की तलाश में मुंबई आए प्रेमी जोड़े की कहानी चुपके से दर्शकों के दिलों में आशियाना पा चुकी थी। अगली कुछ फिल्मों के साथ बासु चटर्जी का पाश और गहरा होता गया। साथ ही गहरे प्रभाव छोड़ गए अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा भी। दोनों ही कलाकारों की पहचान उन दिनों के हीरो-हीरोइन वाली श्रेणी से एकदम अलग थी। अब लोगों को हीरो की तरह स्टाइल नहीं मारना था, हीरोइनों की तरह सजने-संवरने का भी शौक कम हो रहा था। सौम्यता, सरलता, सकुचाहट, यहां तक कि आगे बढ़ने के लिए जरूरी आत्मविश्वास में कुछ कमी भी सामान्य स्थितियां मानी जा रही थीं। मध्यम आयवर्गीय परिवारों के घरों को बड़ी ही सहजता से बड़े पर्दे पर दिखाया जा रहा था, जहां लकदक रोशनियां, लंबी-लंबी कारें नहीं बल्कि लोकल बस और ट्रेन में सफर करता किरदार ही मुख्य था। इस बदलाव का प्रभाव ऐसा था कि अब कहानियों में अमिताभ बच्चन (मंजिल) और धर्मेंद्र (दिल्लगी) को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी ताकि वे अपनी बनी-बनाई छवि से निकलकर इन आम किरदारों सरीखे नजर आ पाएं। विविधता का देश है भारत, मगर बड़े पर्दे पर जिस खूबसूरती से बासु चटर्जी ने समुदायों की विविधता को दर्शाया, उसका कोई सानी नहीं। ‘खट्टा मीठा’ (पारसी), ‘बातों बातों में’ (मुंबई में बसे ईसाई) जैसी फिल्में इसी की बानगी हैं। तो वहीं साहित्य और सिनेमा की दूरी पाटने में भी बासु दा का जवाब नहीं था। ‘सारा आकाश’, ‘पिया का घर’, ‘रजनीगंधा’, ‘रत्नदीप’, ‘स्वामी’, ‘अपने पराये’ साहित्य के प्रति उनकी समझ को दर्शाने वाली फिल्में हैं। इसके अलावा जिस एक क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए बासु चटर्जी को याद किया जाना चाहिए, वो है फिल्मों में महिला किरदारों की उपस्थिति। ‘पिया का घर’ में मालती हो या ‘रजनीगंधा’ की दीपा, बासु दा ने समाज में महिलाओं की उड़ान को पंख देने का काम किया। प्यार में चुनाव से लेकर समाज में अपनी मर्जी से जीने की राह चुनने तक, बासु चटर्जी की फिल्मों में महिला कलाकार मजबूत इच्छाशक्ति की बेजोड़ मिसाल रहीं। ऐसा नहीं है कि बासु चटर्जी ने फिल्मों के किरदारों और प्रस्तुति को ही विशेष योग्यता दी। बासु दा की ये सादगी उनकी फिल्मों के गीतों में नजर आती है। ‘ये जीवन है इस जीवन का’(पिया का घर), ‘रिमझिम गिरे सावन’ (मंजिल), से लेकर ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे’ (रजनीगंधा) और ‘चितचोर’ के सभी गीतों में बासु चटर्जी ने अपनी सादगी बरकरार रखी और सिनेमा के इतिहास को बेहद सरल, मृदु और बेहतरीन गीतों की माला से बांध दिया। फिल्मों के साथ ही बासु चटर्जी ने टीवी पर भी अपना जादू चलाया। ‘रजनी’, ‘ब्योमकेश बक्शी’, ‘दर्पण’ और ‘कक्काजी कहिन’ ने छोटे पर्दे को समृद्ध किया। आज भी जब कोई फिल्मकार आम इंसान की खास दुनिया को सबके सामने लाने का प्रयास करता है तो बासु चटर्जी का पूरा सफर उसके लिए गाइडबुक का काम करता है।
Published in Dainik Jagran on 04.06.2023 with other photos
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